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क्या करू क्या सोचू जिस से ज़माना सुधरे
ज़माना तो ज़माना है हमारा घराना सुधरे
है ज़रुरत अभी खुद को सुधरने कि
हमसे क्या सुधरे कोई जब के हम न सुधरे
यूं तो करते हैं बहुत सी बातें मोहब्बत कि हम
आज तक नहीं सोचा के हमारी आदत सुधरे
खुद करें किसी से बलात्कार तो कोई बात नहीं
दूसरों के लिए कहते हैं दो फांसी के ज़माना सुधरे
निकलती हैं राहें हर तरफ कि अपने ही घर से
अगर हर राह को सुधारें तो सारा ज़माना सुधरे
एक मल्लाह ही काफी है नाव को पार लगाने के लिए
मल्लाह में है सहन शक्ति तो क्यूँ न मुसाफिर सुधरे
बनके नेता हो तो जाते हैं बदनामे ज़माना हम भी
कहती है जनता क्या हुआ के तुम अभी भी न सुधरे
शर्म नहीं आती हमें अपने बुरे कारनामो पर
एक दिन नेक औलाद भी कहती है के पापा तुम नहीं सुधरे
काश जान जाते पहले ही के दुनिया में रुस्वाई क्या है
नहीं मिलती गलियां सोचते हैं पहले क्यूँ नहीं सुधरे
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गरीबों का खून चूसना आज मेरी फितरत है
हर किसी पर ज़ुल्म करना मेरी आदत है
हर जगह फसाद कराना मेरी ताक़त है
गरीबों को झिड़कना मेरी फितरत है
हराम कि दौलत से न हमको नफरत है
हलाल कि रोज़ी कि न हमको चाहत है
बच्चों कि ज़िन्दगी से न हमको मोहब्बत है
हर पल दौलत बस दौलत कि ही चाहत है
चाहे दौलत जैसी भी हो उसी कि ज़रुरत है
नहीं सोचा नहीं समझा के ये किसकी दौलत है
आज पांव में बेड़ियां हैं सबकी निगाहों में नफरत है
सब यही पूछते हैं क्या हुआ ये कैसी हालत है
कल था प्यार जिसके आँखों में आज बगावत है
बुरे ने पा लिया बुरा अंजाम यही सच्ची कहावत है
बिखर गया है पूरा घर सबके पीछे अदालत है
दौलत गयी शोहरत गयी अब घर भी हैं बिखरे
अब पछताए क्या होत हैं जब हम कल नहीं सुधरे
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