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बर्बादिये गुलिस्तां के लिए एक ही उल्लू काफी है
हर शाख पर उल्लू बैठे हैं अंजामे गुलिस्तां क्या होगा
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आज हर तरफ मायूसी उदासी और ग़म का तूफान हर गरीब हिन्दुतानी के आँगन में शोर मचा रहा है कल ये उमीद बंधी थी के हम आज दो सौ कमाते हैं तो सब खर्च हो जाता है अपनी बेटी की शादी के लिए कुछ बचा नहीं पाते बच्चे को स्कूल नहीं भेज पाते कभी उपास भी सहते हैं वजह महगाई बेरोज़गारी है इस उदासीन हालत में एक नयी आवाज़ सुनाई दी नयी किरण निकली और पूरा भारत ख़ुशी से झूम उठा के अब एक गरीबों का मसीहा आ रहा है जो गरीबी के आँगन से निकला है बातें दिल से करता है गरीबों के दर्द और दुःख से आगाह है वो सब बदल देगा नयी ख़ुशी देगा नया उत्साह देगा हमारी बेटियां अब महफूज़ रहेंगी ज़ुल्म से निजात मिलेगा हर घर के चूल्हे समय से जलेंगे इस ख़ुशी में सबने हिस्सा लिया और तन मन धन सब कुछ इस उमीद में लगा दिया .
मगर आज जब रेल के किराये के तरफ देखा तो कहीं जाने के बारे में सोचने पर मजबूर हो गया गैस चीनी और हर तरफ से हर चीज़ में बढ़ने की आवाज़ बेहोश करने लगा आखिर ये क्यों और क्यों नहीं गरीबों की मदद के लिए ऐसा किया गया के लोकल और हर साधारण टिकट पर रेल का किराया नहीं बढ़ेगा क्यूंकि गरीब रेल में बैठ कर कम खड़े होकर एक दूसरे के गोद में बैठ कर ज़यादह सफर करता है खड़े होने की भी जगह नहीं मिलने की हालत में पायदान पर भी लटक कर सफर करने पर मजबूर होता है क्या नेता मंत्री या जो भी ऊँची कुर्सी वाले लोग हैं उन पर इसका असर पड़ता है नहीं उन्हें तो पास या हर तरह की सहूलत दी जाती है वतानाकूल और स्लीपर में गरीब बहुत कम सफर करता है गैस नेताओं और बड़े लोगों को ज़रुरत से ज़यादह मिल ही जाता है चीनी तो गरीब अब देख भी नहीं पता है और भी बहुत सी चीज़ें हैं जिनसे गरीब मायूस हो जाता है .
आखिर ये कैसी नीति और हमदर्दी है जो वादे किये गए जो सपने दिखाए गए जो खुशियां दिखाई गयीं आखिर वो कब आएंगे क्या आज लगभग पचास दिन काफी नहीं गरीबों के दामन में कुछ भी तो डाला जा सकता था कहीं से आवाज़ आई के अभी यहाँ चुनाव बाक़ी है यहाँ अगर किराये बढ़ गए तो वोट काट जाएंगे तब जा कर अस्सी किलोमीटर तक का किराया नहीं बढ़ाया गया यानी के राज की नीति के लिए गरीबों के खातिर ये फैसला पहले नहीं हुआ जहाँ भी राज गद्दी दूर नज़र आती है वहां के लिए कुछ भी नीति बना ली जाती है ताके कुर्सी मिल जाए खैर आज की और कल की राजनीति में कुछ फ़र्क़ तो नज़र नहीं आता आज की बढ़ती हुयी महंगाई मजबूरी और ज़रूरी है कल की बढ़ोतरी ज़ुल्म और अत्त्याचार था क्यूंकि कुर्सी हासिल करनी थी कुर्सी मिल गयी अब कहावत बन गया के ” सैयां हुए कोतवाल अब डर काहे का ” जो मक़सद था हासिल हुआ राज गद्दी मिली अब मर्ज़ी अपनी है मगर यही सच है के आरोप लगाना आसान है मगर मालिक बन कर घर को चलाना मुश्किल है अब ये है नमो रेल नमो चीनी नमो प्याज़ नमो गैस और नमो राज राज की गद्दी है राजनीति की नीति बिलकुल फिसड्डी है अब बस इंतज़ार इंतज़ार आस उमीद की घडी कब खत्म होगी बस यही देखना है इसके सेवा कुछ चारा नहीं .
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